निर्णयहीन

विकल हिमालय काँपि रहल भूचाल एहेन बड्ड जोरक आयल,
कोसी-कमला उठल ज्वार जलधार धरा पर चहुँदिस छायल,
अंत ने देखी जल अरु मेघक, वेग में गामक गाम दहायल,
खपरा-मड़बा-गाछी डोलय, करुण रुदन सगरो पसरायल।

एक दिस एकटा बँसबिट्टी पर लुधकल एकटा मनुख डरायल,
ज्वार बढ़ैत अछि, भँवर लग अछि, हेलनाए नै ओ बुझय अभागल,
ससरल जाए छथि शेष सीस दिस, इम्हर जल गरदनि पर आयल।

दोसर दिस धरतीक खेल सब ईंट-पाथरक महल ढहायल,
ओहि में फाँसल मनुख एकटा, ईंट-पानि केर बीच हेरायल,
बाट बाहरक नै इजोर, छत टुटैत, कोना ओ माथ बचायत।

खर्हिया-कुकुर-बिलारि-गाय चिकरय, सबहक स्वर जल बीच बिलायल।
एक्के टा छी मनुख हमहुँ केकरा-केकरा एक संग बचायब!
सब हमहीँ छी, सब हमरे में, हे नारायण! कतय परायब?
दिन बीतल असमंजस में शुरु कतय करी ओहि पार जे जायब!
देख ने सकी धुंध पार,
अहाँ कत्तेक दिन पर दिनकर बनि आयब?

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