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गोपीक विलाप

तजि बैकुंठ कियै वृन्दावन एलहुँ द्वारकाधीश? अहाँ फाग मनबै छी ब्रज में हम भटकै छी निर्जन बन में लोक पुछै छोरि दुआरि अंगना कियै गेल ओहि दिस। चरण पखारै छलहुँ भोर नित भऽ गेल छी लग आबिते विपरीत गोपवधू सऽ नीक छलहुँ बनि धूल अहाँ में लीन। राधा-ललिता सखा बजाबैथ हम नामो ली, लोक खिझाबैथ मनुख जाल में बझा कियै हमरा केलहुँ भयभीत? बताह अछि सब लोक जगत के कष्ट देलक सब युग अंबा के हम कोना बचितौं साधारण बाला राक्षस बीच! सबहक घर नवनीत चोराबी मुस्की सऽ सब जीव रिझाबी हमहीं छी बेड़ी में बान्हल चोरा लियऽ आबि ईश! जग लऽ मुरली-ज्ञानक गीता हमरा लेल नै एक्को बित्ता दर्शन बिन वय कोना कटत किछ करू शीघ्र जगदीश!

निर्णयहीन

विकल हिमालय काँपि रहल भूचाल एहेन बड्ड जोरक आयल, कोसी-कमला उठल ज्वार जलधार धरा पर चहुँदिस छायल, अंत ने देखी जल अरु मेघक, वेग में गामक गाम दहायल, खपरा-मड़बा-गाछी डोलय, करुण रुदन सगरो पसरायल। एक दिस एकटा बँसबिट्टी पर लुधकल एकटा मनुख डरायल, ज्वार बढ़ैत अछि, भँवर लग अछि, हेलनाए नै ओ बुझय अभागल, ससरल जाए छथि शेष सीस दिस, इम्हर जल गरदनि पर आयल। दोसर दिस धरतीक खेल सब ईंट-पाथरक महल ढहायल, ओहि में फाँसल मनुख एकटा, ईंट-पानि केर बीच हेरायल, बाट बाहरक नै इजोर, छत टुटैत, कोना ओ माथ बचायत। खर्हिया-कुकुर-बिलारि-गाय चिकरय, सबहक स्वर जल बीच बिलायल। एक्के टा छी मनुख हमहुँ केकरा-केकरा एक संग बचायब! सब हमहीँ छी, सब हमरे में, हे नारायण! कतय परायब? दिन बीतल असमंजस में शुरु कतय करी ओहि पार जे जायब! देख ने सकी धुंध पार, अहाँ कत्तेक दिन पर दिनकर बनि आयब?

आकाशगंगा

चंद्रहीन विकराल तिमिर में कालजेय सीमा-विहीन जे शत-सहस्त्र-कोटिक तरेगनक श्वेत अद्वैत अनंत प्रभा सऽ ज्वलित तरणि ओ बहैत अबैत अछि विपथ मनुख के बाट देखाबैत, जरैत तीर-शिख सन लुक्का तजि जकर कियो नै चीर सकै गति, ओ भागीरथि के उद्गम-स्थल केहेन धुंध के जाल में डूबल! पथ-विहीन सब धरनीचर केलक आभूषण क्षीण गगन के, धुआँ देखै छी चहुँदिस जेना पसरल मेघक चद्दैर नभ में। डिबिया-टेमी-दीप बिसरि कऽ जे शक्तिमय इजोत बनेलौं, केलक गगन पर से इजोर अपने सृष्टा सऽ दूर भऽ गेलौं। विश्वेश्वर के जटा स बहि कऽ जे पृथ्वी पर जीवन दै छथि, असगर गंगा नै छथि जिनकर दर्शन दुर्लभ होएत जायत अछि। एकटा आकाशो में गंगा अछि जे आठ पहर उपर सऽ ज्वाला के भव्य गण-सेना सन तकैत रहैत अछि प्रहरी बनि कऽ। मुदा आब नै देख सकै छी कतबो ताकी सांझ सऽ भिनसर, बिसरि रहल छी रातिक जे होए छल अन्हार ओ जगमग सुंदर। ग्रहण लागि गेल नभ में पसरल इजोर में बिला गेल आकाशगंगा!

अपन गामक जाड़

अपन गामक जाड़... भोरहरबाक अन्हार, हवा में गमकैत सिंहार, और भगवती के आगाँ राखल धूमन। ठरल पोखरिक पानि में लाल कमलक फूल, ओहि पर गबैत उड़ैत कारी भमरा सब। पोखरिक महार पर बड़का आमक गाछी, तहि में सऽ जारैन बिछ कऽ लऽ जैत अछि खबासिन। अंगना में नबकनिया चुल्हा पजारने, धुआँ सऽ अंइखो हुनकर सिंदुर सन लाल भेल! बुढ़ा पंडीजी के चूड़ा-दही-गुड़क जलपान, तकर बाद खाइ के छैन्ह बगिया और दू खिल्ली पान। इम्हर चिल्का सब मुरलाइ लऽ बताह भेल। भरि अंगना दौड़-दौड़ भोरे सऽ अनघोल कैल। दुपहरिया के मंद पड़ल रौद, तहि में निखरल गेंदाक रूप। कनेक कनकनी... परबा-पौरकी सब सेहो बाहर आबि तपैत अछि धूप। भात-दैल-तरकारी संग खम्हाउर-तिलकोरक भोज, संग में अछि खटमिट्ठी-पापड़ और अचार, उपर सऽ मोट छाल्ही बला दही और सकरौरी के सचार। खा-पिब कऽ घरबारिक पसरल छथि खाट पर, करिया कुकुर मालिकक लग सुतल नीचा बाट पर! ओलती में बैस दुनु बुढ़ी जाँत पिसैत छथि, लगनी गबैत छथि, आ बीच-बीच में कनफुसकी में मल्हारपुरवाली के दुसैत छथि। साँझक ओस आ शीतलहरीक बयार, ओसारा पर टाँगल ओहार, मैंयाँ के लाइ, तिलबा, तिलकुट, मरुआ-चाउरक रोटी, माटिक चुल्हा प...