गोपीक विलाप
तजि बैकुंठ कियै वृन्दावन एलहुँ द्वारकाधीश? अहाँ फाग मनबै छी ब्रज में हम भटकै छी निर्जन बन में लोक पुछै छोरि दुआरि अंगना कियै गेल ओहि दिस। चरण पखारै छलहुँ भोर नित भऽ गेल छी लग आबिते विपरीत गोपवधू सऽ नीक छलहुँ बनि धूल अहाँ में लीन। राधा-ललिता सखा बजाबैथ हम नामो ली, लोक खिझाबैथ मनुख जाल में बझा कियै हमरा केलहुँ भयभीत? बताह अछि सब लोक जगत के कष्ट देलक सब युग अंबा के हम कोना बचितौं साधारण बाला राक्षस बीच! सबहक घर नवनीत चोराबी मुस्की सऽ सब जीव रिझाबी हमहीं छी बेड़ी में बान्हल चोरा लियऽ आबि ईश! जग लऽ मुरली-ज्ञानक गीता हमरा लेल नै एक्को बित्ता दर्शन बिन वय कोना कटत किछ करू शीघ्र जगदीश!