आकाशगंगा
चंद्रहीन विकराल तिमिर में कालजेय सीमा-विहीन जे शत-सहस्त्र-कोटिक तरेगनक श्वेत अद्वैत अनंत प्रभा सऽ ज्वलित तरणि ओ बहैत अबैत अछि विपथ मनुख के बाट देखाबैत, जरैत तीर-शिख सन लुक्का तजि जकर कियो नै चीर सकै गति, ओ भागीरथि के उद्गम-स्थल केहेन धुंध के जाल में डूबल! पथ-विहीन सब धरनीचर केलक आभूषण क्षीण गगन के, धुआँ देखै छी चहुँदिस जेना पसरल मेघक चद्दैर नभ में। डिबिया-टेमी-दीप बिसरि कऽ जे शक्तिमय इजोत बनेलौं, केलक गगन पर से इजोर अपने सृष्टा सऽ दूर भऽ गेलौं। विश्वेश्वर के जटा स बहि कऽ जे पृथ्वी पर जीवन दै छथि, असगर गंगा नै छथि जिनकर दर्शन दुर्लभ होएत जायत अछि। एकटा आकाशो में गंगा अछि जे आठ पहर उपर सऽ ज्वाला के भव्य गण-सेना सन तकैत रहैत अछि प्रहरी बनि कऽ। मुदा आब नै देख सकै छी कतबो ताकी सांझ सऽ भिनसर, बिसरि रहल छी रातिक जे होए छल अन्हार ओ जगमग सुंदर। ग्रहण लागि गेल नभ में पसरल इजोर में बिला गेल आकाशगंगा!